शुक-जन्म


शुक-जन्म


यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
            द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रैति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु:
            तं सर्वभूत हृदयं मुनिमानतोऽस्मि ।।

व्यास महर्षि आदिनारायण परमात्मा का स्वरूप हैं । श्रीशुकदेवजी महाराज भगवान शंकर का स्वरूप हैं । भगवान शंकर ही शुकदेवजी के स्वरूप से प्रगट हुए हैं ।

ऐसा दिखता है कि नारदजी महाराज जहाँ जाते हैं, वहाँ कुछ कलह जगा देते हैं । किन्तु, नारदजी के कलह में भी जगत का कल्याण है । अनेक का कल्याण करने के लिए नारदजी कलह जगा देते हैं ।

एक बार ऐसा ही हुआ । अनेक जीवों का कल्याण करने के लिए नारदजी ने थोड़ा कलह जगा दिया । वैâलाशधाम में भगवान शंकर समाधि में थे । शंकर भगवान प्राय: समाधि में ही रहते हैं । समाधि में से जागते हैं, तब कथा करते हैं। कथा की समाप्ति होवे, तब समाधि में बैठ जाते हैं । कथा और समाधि– ये दो ही काम शिव करते हैं । तीसरा कोई काम करते ही नहीं हैं । समाधि से जागने पर माता पार्वतीजी को रामकथा-कृष्णकथा सुनाते हैं ।

शंकर भगवान समाधि में थे । माता पार्वतीजी शिवलिंग की स्थापना करती हैं– शिवजी की पूजा करती हैं । शिव-स्वरूप दिव्य है । शालिग्राम नारायण का निराकार स्वरूप है– शालिग्राम में हाथ, पाँव, मुख नहीं हैं । नारायण के निराकार स्वरूप की भी पूजा होती है और नारायण के साकार स्वरूप की भी पूजा होती है । शिवलिंग भगवान शंकर का निराकार स्वरूप है । ‘लिंग’ शब्द का अर्थ है– शिव-स्वरूप !

भगवान शंकर समाधि में हैं । माता पार्वतीजी ने शिवजी की स्थापना की– शिवजी की पूजा करती हैं । पूजा पूर्ण हुई, उसी समय नारदजी वहाँ आये । माताजी को आनंद हुआ । उन्होंने शंकर भगवान को भोग लगाया था, सो शिवप्रसाद नारदजी को भी दिया । नारदजी प्रसाद खाकर प्रसन्न हुए । नारदजी ने विचार किया– यह प्रसाद जो आज मुझे मिला है, ऐसा प्रसाद जगत के अनेक जीवों को भी मिले, इसलिए मैं थोड़ा कलह जगा दूँ ।

प्रसाद स्वीकार करके नारदजी ने माता पार्वतीजी की बहुत प्रशंसा की– ‘भगवान शंकर तो पूर्ण निष्काम हैं । शिवजी ने कामदेव को जला दिया है । वे तो पूर्ण निष्काम हैं, तो भी आपके साथ उन्होंने लग्न किया है । आप शिव-शक्ति हो....।’ माताजी की नारद प्रशंसा करते हैं । माताजी ने कहा–‘नारद ! तू मेरी प्रशंसा करता है । उनके लिए मैंने वैâसी कठिन तपश्चर्या की है, यह मेरा मन ही जानता है । बहुत दिन तक मैं पान (पत्ते) खाती रही, बहुत दिन तक पवन का भक्षण करती रही, बहुत दिन तक मैं जल के ऊपर रही...। मैंने बहुत तत्पश्चर्या की है ।’

नारदजी ने हाथ जोड़कर कहा– ‘माताजी ! आपकी तपश्चर्या तो बहुत है । ऐसी कोई नहीं कर सकता । आपने इतनी तपश्चर्या की, ठीक है ! किन्तु, मुझे कहना तो नहीं चाहिए– यह पुरुष-स्वभाव ही ऐसा निष्ठुर होता है । स्त्री सर्वरीति से भोग देती है, तो भी पुरुष थोड़ा कपट तो करता ही है । मुझे कहना तो नहीं चाहिए, पर... क्षमा करें । शंकर भगवान आपसे भी थोड़ी बातें छिपाते हैं । ऐसा नहीं करना चाहिए । आपने सर्वस्व अर्पण किया है....।’

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, जो मेरे से छिपायी है ।’

‘माताजी ! मेरे को बोलना ठीक नहीं है । मैं इतना ही कहता हूँ कि उनके गले में जो मुंड-माला है, वह किसके मस्तक की है– यह आप जानती नहीं हो ! कदाचित्, आप पूछो– तो भी वे बताने वाले नहीं हैं । जय  मन्नारायण, अब मैं जाता हूँ ।’ माताजी को इतना कहा और नारदजी चले गए ।

माताजी ने विचार किया कि आज समाधि में से जागने के बाद सर्वप्रथम मैं यही प्रश्न पूछूँगी– किसके मस्तक की माला आपके गले में रखते हो ? नारदजी ने मुझसे कहा है कि आप पूछोगी, तो भी नहीं बतायेंगे !

भगवान शंकर समाधि में से जागते हैं– सीताराम, सीताराम, सीताराम बोलते हैं । माता पार्वतीजी शिवजी को अतिशय प्रिय हैं । इसका एक कारण है– वेदों में ऐसा वर्णन है कि पार्वती माता ब्रह्मविद्या है । शिव ब्रह्मरूप हैं । ब्रह्म, ब्रह्मविद्या के आधीन रहता है । भगवान शंकर को समाधि में जो आनंद मिलता है– जागने के बाद माता पार्वती शिवजी को वही आनंद देती हैं । माता पार्वतीजी ऐसे प्रश्न पूछती हैं कि शंकर भगवान को कथा कहनी पड़ती है । कथा में जगत की विस्मृति हो जाती है । समाधि में भी जगत की विस्मृति होती है । जो आनंद शिवजी को समाधि में मिलता है, जागने पर वही आनंद माता पार्वतीजी उनको देती हैं । भगवान शंकर को इसीलिए माता पार्वती अतिश: प्रिय लगती हैं । 

पार्वती माता ने कहा– ‘महाराज ! आज आपसे कुछ पूछना है ।’

शिवजी ने विचार किया कि मेरे राम की कुछ कथा पूछेंगी या मेरे श्रीकृष्ण की लीला का कोई प्रश्न करेंगी ।

पार्वती माता ने पूछा– ‘आपके गले में जो मुंड-माला है, वह किसके मस्तक की है ?– यह मुझे बताओ ।’

शिवजी ने कहा–‘यह क्या पूछती हो ? कुछ और पूछो– मैं राम-कथा कहूँ या कृष्णकथा कहूँ ?’

माताजी ने विचार किया कि नारद कहता था, वह बात झूठी नहीं है । इन्हें कहने की इच्छा नहीं है । कहते हैं कि राम-कथा कहूँ या कृष्ण-कथा कहूँ । वे  बोलीं– मुझे आज रामजी की कथा सुननी नहीं है, कृष्ण-कथा भी सुननी नहीं है।  आपके गले में जो मुंड-माला है, वह किसके मस्तक की है– यही बताओ । दूसरा कुछ सुनना नहीं है।’

शंकर भगवान को आश्चर्य हुआ– आज तक कभी ऐसा प्रश्न पूछा नहीं ।  आज इसको कोई गुरु मिला है– ऐसा लगता है । शिवजी ने स्मित हास्य किया  और कहा– ‘देवि, ये सब बातें कहूँगा, तो तुम्हें दुःख होगा ।’

माताजी ने कहा– ‘भले ही दुःख हो, किन्तु मुझे यहीं जानना है । आप किसके मस्तक की माला गले में रखते हो?’

शंकर भगवान पार्वतीजी के हठ को देखते हुए कथा कहना प्रारंभ करते हैं । भगवान शंकर कहते हैं, ‘हे पार्वती ! कथा में समाधि लगती है– समाधि का आनंद आता है । जिसका मन बिगड़ा हुआ है, जिसका मन मलीन है– उसको कथा में आलस्य आता है, कथा में मन चंचल होता है । जिसका मन शुद्ध है– उसको कथा मे परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन होता है । यह कथा ऐसी है कि कदाचित् तुमको समाधि लग जावे, तो ? मैं आँख बन्द करके कथा कहता हूँ । तुम ऐसा करना कि दो-चार मिनट होने पर कथा के बीच में– हूँ...हूँ... ऐसा बोलना । ‘हुँकार’ देने से मैं ये समझूँगा कि समाधि नहीं लगी है ।’

माता पार्वती ने कहा– ‘आपकी ऐसी इच्छा है, तो मैं ऐसा ही करूँगी । दोतीन मिनट के बाद में हूँ...हूँ... बोलती रहूँगी ।’

शिवजी महाराज आँखें बन्द करके कथा कहते हैं– ‘श्रीकृष्ण बाँसुरी में से सभी जीवों को बुलाते हैं । गोपियों को भी बुलाते हैं । यह जीव मेरा अंश है । मेरा अंश मेरे से अलग हुआ है । आज भी भगवान बाँसुरी बजाते हैं । बाँसुरी बजा करके जीव को बुलाते हैं– मेरे पास आओ, मेरे पास आओ । मैं आनंद दूँगा । आनंद संसार में नहीं है । आनंद किसी स्त्री के पास नहीं है, आनंद किसी पुरुष के पास नहीं है । आनंद तो भगवान जीव को देते हैं । मेरा जीव मेरे से अलग हुआ है, वो मेरे पास आवे । आज भी बाँसुरी बजाते हैं । भगवान ने ऐसी मधुर बाँसुरी बजायी– गोपी दौड़ती हुई जाती हैं ।’

भगवान शंकर ने ऐसा वर्णन किया कि कथा में माताजी को हृदय में श्रीकृष्ण का दर्शन हुआ– समाधि लग गयी । शिवजी ने कहा था कि दो-चार मिनट होवे तो हुँकार देना । समाधि लगने के बाद कौन हुंकार देवे ? रासलीला का वर्णन शंकर भगवान करते हैं– ‘ये स्त्री-पुरुष के मिलन की कथा नहीं है । शुद्ध ईश्वरजीव के मिलन का वर्णन है ।’ शिवजी महाराज ने ऐसी मधुर कथा कही कि पार्वतीजी को समाधि लग गयी । हृदय में परमात्मा का दर्शन हुआ है । आनंद में परमात्मा के साथ एक हो गयी हैं । अब हुंकार कौन भरे ? भगवान की लीला है।

वट-वृक्ष की छाया में, एकान्त में शंकर भगवान माता पार्वतीजी को यह कथा सुनाते थे । उस समय एक पोपट (तोता) वहाँ मौजूद था, सभी को बाहर निकाला था, पोपट वहाँ रह गया था । वह पोपट सुनता था । शिवजी के मुख से उसने कथा सुनी । वह कथा सुनने से उसको ज्ञान हो गया । भगवान शंकर कथा कहते थे । उसने देखा– माता पार्वतीजी तो समाधि में हैं । आगे की अभी बहुत लीला बाकी है । द्वारका लीला बाकी है, एकादश स्कन्ध की ज्ञान-लीला बाकी है । हुंकार फूटती नहीं है । कदाचित्, शिवजी आँख खोलें और शिवजी को खबर पड़े कि पार्वतीजी की तो समाधि लगी है, तो वे आगे की कथा नहीं कहेंगे । पोपट को ज्ञान हुआ था, सो पोपट ने माता पार्वतीजी के जैसा शब्द किया । हूँ...हूँ...हुँकार भरने लगा ।

शंकर भगवान को खबर नहीं है– कौन कथा सुन रहा है ? माताजी को तो समाधि लगी है । शिवजी ने ऐसा दिव्य वर्णन किया । पोपट कथा सुनता था । दशम स्कंध की कथा परिपूर्ण हुई, एकादश स्कन्ध परिपूर्ण हुआ, द्वादश स्कंध  की समाप्ति हुई । समाप्ति में शिवजी ने भगवान का जय-जयकार किया और आँख खोलते हैं– माताजी तो समाधि में हैं । ‘देवि ! देवि !!’– कौन सुनता है ! समाधि लगी है ।

शिवजी को आश्चर्य हुआ है कि कब इसको समाधि लगी ? मेरे को कुछ खबर ही नहीं पड़ी । ये समाधि में है तो हुँकार कौन बोलता है ? शिवजी देखने लगे– वट-वृक्ष के झाड़ के ऊपर एक पोपट बैठा था । शिवजी की कृपा से शिवजी के मुख से निकली हुई दिव्य कथा सुनकर के वह ज्ञानी हो गया था । आनंद में मस्त हो गया था ।

–इसने कथा सुनी है ? फिर शिवजी को थोड़ा ठीक नहीं लगा । वे पोपट को मारने के लिए दौड़े । आज तक मैंने किसी को भी यह अमर कथा नहीं सुनायी । पार्वतीजी तो समाधि में हैं । वह पोपट वहाँ से उड़ता है, घबराया है ।

कैलाश के पास ही व्यासनारायण का दिव्य आश्रम है । व्यास महर्षि ने भागवत की रचना की है । भागवत की रचना करने के बाद व्यासजी चिंता में हैं कि मेरी भागवत की कथा कौन करेगा ? बड़े-बड़े ऋषि व्यासजी के शिष्य हैं– माँगते हैं । किसी को ऋग्वेद दिया, किसी को यजुर्वेद दिया, किसी को महाभारत दिया– भागवत नहीं दी । भागवत प्रेम-शास्त्र है । ये मेरा सर्वस्व है । जो परमात्मा के साथ ही प्रेम करता है, वही भागवत की कथा बराबर कर सकता है । जो जगत के जड़ पदार्थों के साथ प्रेम करता है, वह भागवत की कथा क्या करेगा ?किसी को भागवत देने की इच्छा नहीं होती है ।

व्यास की पत्नी का नाम है– अरणी देवी ! वृद्धावस्था में ऐसी इच्छा हुई कि शंकर भगवान मेरे पुत्र होवें । मैं भागवत उनको दे दूँगा । वे भागवत की कथा करेंगे । ये मेरा सर्वस्व है । इसके लायक तो भगवान शंकर हैं । श्रीकृष्ण ही शिवजी का धन हैं । शंकर भगवान मेरे पुत्र होवें– ऐसी इच्छा से व्यास महर्षि अरणी देवी के साथ पंचाक्षर शिव-मंत्र का जप करते हैं । शिवजी जगत में ज्यादा नहीं आते हैं । शिवजी का अवतार नहीं होता है । शिवजी को जगत में आने की इच्छा नहीं होती । प्रकृति से दूर रहते हैं । जगत में कौन आवे ? संसार मायामय है।

प्राय: भगवान शंकर गाँव के बाहर श्मशान में विराजते हैं । शिवजी का ऐसा स्वभाव है कि जगत को जिसकी जरूरत है, उसका वे त्याग कर देते हैं । जगत जिसका त्याग करता है– शिव उसको अपनाते हैं । घर में एक गुलाब का फूल होवे और अनेक देव होवें, तो मन में शंका हो जाती है कि यह गणपतिजी को अर्पित करूँ या हनुमानजी को अर्पित करूँ ? गुलाब का फूल एक है । शंकर भगवान कहते हैं– मेरे को गुलाब का फूल अच्छा लगता ही नहीं, मेरे को धतूरे का फूल बड़ा अच्छा लगता है । गुलाब के लिए कोई झगड़ा भले करे– धतूरे के लिए
कोई झगड़ा करता है ? जिसका जगत त्याग करता है, शिवजी उसको अपनाते हैं । शिव प्रवृत्ति से दूर रहते हैं । उनको जगत में आने की इच्छा ही नहीं होती ।

भगवान शंकर मेरे पुत्र होवें– वृद्धावस्था में व्यासजी को ऐसी इच्छा हुई है । जवानी में कभी पुत्रेष्णा जागी नहीं । तपश्चर्या बहुत करते थे । वृद्धावस्था में  भागवत की रचना करने के बाद पुत्रेष्णा जागी है– मेरी भागवत की कथा कौन करेगा ? भगवान शंकर कथा करें तो अनेक जीवों का कल्याण होगा । व्यास नारायण अरणी देवी के साथ पंचाक्षर शिव-मंत्र का जाप करते हैं– शिवजी मेरे यहाँ पुत्र-रूप में आवें ।

वह पोपट जो वहाँ से उड़ा है– वह दौड़ता हुआ व्यास महर्षि के आश्रम में आया है । शिवजी उसके पीछे पड़े हैं । वह दौड़ता हुआ जो गया, सो वह अरणी देवी की गोद में आया । शिवजी दौड़ते हुए आए हैं । व्यासजी खड़े हो गए– शंकर भगवान आए हैं । व्यासजी ने सुन्दर आसन दिया है । भगवान शंकर की पूजा करते हैं । ‘क्यों दौड़ते हुए आये हो ?’ शिवजी ने कहा– ‘क्या कहूँ, मेरे घर में बड़ी चोरी हो गयी है ।’ व्यासजी बोले– ‘आपके घर में चोरी हो गयी ? आपके घर में कोई चोर आवे तो उसको निर्जल एकादशी ही करनी पड़े । आप किसी वस्तु का संग्रह करते ही नहीं । वेदों में तो आपका बहुत वर्णन है ।’

शिव विश्वनाथ हैं । सभी के पति हैं, तो चोर के पति भी शिव हैं– पुंजस्तेभ्यो नम:, विशालेभ्यो नम:,स्तेनाम्पतये नम:। चोर के अधिपति भी शिव हैं । सभी के मालिक शिव हैं । ‘आपके यहाँ कौन चोर आवे ? और आवे तो उसको निर्जल एकादशी ही करनी पड़े । आप किसी भी वस्तु का संग्रह नहीं करते । आपके यहाँ किसकी चोरी हुई ?’

शिवजी ने कहा– ‘अमरकथा आज तक मैंने किसी को नहीं दी थी । वह अमरकथा मैंने पार्वती को सुनायी । उसे तो समाधि लग गई, उसको तो कथा का फल मिल गया, किन्तु एक पोपट ने वह कथा सुनी है । वह पोपट आपके आश्रम में दौड़ता हुआ आया है ।’

व्यासजी ने कहा– ‘महाराज, अमरकथा का फल क्या है ?’ शिवजी ने कहा– ‘जो अमरकथा सुनता है, वह अमर हो जाता है ।’ व्यासजी ने कहा– ‘महाराज, आपके मुख से जिसने अमरकथा सुनी, उसको तो– मुझे ऐसा लगता
है, आप भी नहीं मार सकते । वह अमर हो गया है । आपके मुख से उसने कथा सुनी है । उसको आप केसे मार सकते हैं ? आपने एकांत में माता पार्वतीजी को जो अमरकथा सुनायी, वही कथा मैंने भागवत में लिखी है । कृपा करो । मेरी भागवत की कथा करने के लिए मेरे यहाँ अवतार धारण करो । अनेक जीवों का कल्याण होगा ।’

शिवजी ने कहा– ‘संसार में कौन आवे ? संसार तो कोयले की खान है । संसार में जो आता है, उसको माया नहीं छोड़ती है ।’

–‘महाराज, आपको माया क्या कर सकती है ? आपके मस्तक में गंगा जी हैं । आपको माया क्या करेगी ? आपको जो समाधि में आनंद मिलता है, वही आनंद जगत को देना चाहिए । अकेला खावे, सो ठीक नहीं है । आप दूसरे को आनंद दोगे, तो आपका क्या कम होने वाला है ? आपको माया क्या कर सकती है ?’

व्यासजी ने बहुत आग्रह किया– ‘मेरी भागवत की कथा करने के लिए मेरे यहाँ पुत्र रूप से प्रकट होओ । बहुत दिन से मैं पंचाक्षर शिव-मंत्र का जप करता हूँ । कृपा करो ।’

शिवजी को दया आयी है । शिवजी ने देखा– अरणी देवी की गोद में वही पोपट है जिसने मेरे मुख से अमरकथा सुनी है । शिवजी ने केवल नजर की है । केवल दृष्टि देने से पेट में गर्भ रहा है । अरणी देवी के पेट में शुकदेवजी महाराज श्रीकृष्ण का सतत् ध्यान करते हैं । सतत् श्रीकृष्ण का ध्यान करने से उनका श्रीअंग श्रीकृष्ण के जैसा श्याम हो गया । आप जिसका चिंतन करते हो, वैसा स्वरूप आपको मिलता है । बहुत दिन तक माँ के पेट में रहे । व्यासजी ने कहा है– ‘बेटा, अब तेरी माँ को त्रास होता है, बाहर आ जाओ।’ शुकदेवजी ने कहा– ‘बाहर आने पर
कदाचित माया मेरे को स्पर्श करे तो ? माँ के पेट में मैं श्रीकृष्ण का ध्यान करता हूँ । संसार मायामय है ।’

व्यासजी ने कहा–‘बेटा, मैं तेरे को आशीर्वाद देता हूँ, तेरे को माया का स्पर्श नहीं होगा ।’ शुकदेवजी ने कहा– ‘मेरे को डर लगता है, आप मेरे को बेटा-बेटा कहते हो, आपके मन में भी थोड़ी माया है– ऐसा लगता है । आप माया में फँसे हुए हो । मेरे को प्रेम से ‘बेटा-बेटा’ कहते हो । जो कभी माया के आधीन हुआ न हो, वह मेरे को आशीर्वाद दे, वह तो वरदान है । नहीं तो मैं बाहर नहीं आऊँगा।’

भगवान श्रीकृष्ण का नाम है– माधवराय ! ‘मा’ शब्द का अर्थ होता है–माया और ‘धव’ शब्द का अर्थ होता है– ‘पति’। श्रीकृष्ण कभी माया के आधीन हुए नहीं हैं । वे ‘माधवराय’ हैं । भगवान, श्रीकृष्ण ने शुकदेवजी को वरदान दिया है– ‘कभी माया का स्पर्श नहीं होगा ।’

वेदों में, उपनिषदों में दो संतों के नाम ऐसे आते हैं– जो जन्म से ही मुक्त हैं । ‘शुको मुक्त:, वामदेवो मुक्त:’– एक वामदेव ऋषि का ऐसा नाम आता है। वामदेव ऋषि संसार में आये, कभी माया का स्पर्श हुआ नहीं । जन्म से ही
शुकदेवजी महाराज में ज्ञान, वैराग्य और भक्ति तीनों परिपूर्ण हैं ।

यं प्रव्रजन्तमनुपेतपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रैति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु:तं सर्वभूत हृदयं मुनिमानतोऽस्मि ।।

ज्ञान, वैराग्य और भक्ति– तीनों परिपूर्ण हैं । इसीलिए शुकदेवजी महाराज सात दिवस में मुक्ति दे सकते हैं ।

परीक्षित का यह प्रश्न था– सात दिन में जो मेरे को मुक्ति देवे, मेरे को परमात्मा का दर्शन करावे । ज्ञान, वैराग्य और भक्ति जहाँ तीनों परिपूर्ण हैं,वही सात दिवस में मुक्ति दे सकता है । शुकदेवजी जैसे अधिकारी सिद्ध सद्गुरु हों, तो सात दिन तो बहुत हैं, केवल प्रेम से स्पर्श करें तो परमात्मा का दर्शन हो सकता है । गंगा-किनारे शुकदेवजी महाराज ने राजा परीक्षित को कथा सुनायी है ।

घर छोड़ दिया है । अनेक जीवों का कल्याण करने के लिए घर छोड़ा है । शुकदेवजी घर छोड़कर जाने लगे । माँ को दुःख हुआ । मेरा बालक भले ही लग्न न करे, घर में रहे । उसको देखने से मन पवित्र हो जाता है । उसको देखने से भगवान याद आते हैं– मेरा बालक ऐसा है । व्यासजी समझाते हैं– ‘जो अतिश: प्रिय लगता है, वह भगवान को अर्पण करो । साधारण मानव का ऐसा स्वभाव होता है कि उसको जो अच्छा लगता है, वह अपने लिए रखता है । जो अच्छा नहीं लगता है, वह दूसरों को दे देता है । अच्छा मेरे लिए– इसी का नाम ‘आसक्ति’ है । अच्छा दूसरे के लिए– उसी का नाम ‘भक्ति’ है । तेरा पुत्र अनेक जीवों का कल्याण करने के लिए गया है ।

‘हे पुत्र ! हे पुत्र !!’ बोलते हुए व्यासजी दौड़ते हैं । शुकदेवजी ने कहा है– ‘कौन पुत्र है और कौन पिता है ? परमात्मा के पीछे पड़ो । पिता-पुत्र के सम्बन्ध में केवल वासना है । वासना से जीव बाप होता है । वासना से ही जीव बेटा होता है । जीव का ईश्वर से सम्बन्ध सच्चा है । मेरे पीछे क्या पड़ते हो ? अनेक बार आप पुत्र हुए हो, अनेक बार मैं पिता हुआ हूँ । कौन पिता और कौन पुत्र है ? पूर्वजन्म का आपका पुत्र इस समय में कहाँ है ? पूर्वजन्म के पति या पत्नी जो प्राण से प्यारी लगती थी, इस समय में कहाँ है ? ये सब वासना का खेल है । जीव ईश्वर का है ।’

बूढ़े की घर में वासना रह जावे, वह बूढ़ा मरने के बाद बालक का जन्म होता है । कितने लोग बातें करते हैं– इसका मुख इसके दादा के जैसा लगता है । वह ‘दादा’ के जैसा क्या, दादा ही बेटा होकरके आया है । जो बाप था, वही बेटा हुआ है । उसकी घर में आसक्ति थी ।

‘पिताजी, मेरे पीछे क्या पड़ते हो ? परमात्मा के पीछे पड़ो । नर, नारायण का अंश है । नारायण के पीछे पड़ो ।’

व्यास महर्षि को बोध दिया है–‘पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुस्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोस्मि ।’

गंगा किनारे संत-समाज में शुकदेवजी महाराज ने ये दिव्य कथा की है । शुकदेवजी महाराज जब कथा करते थे, उस कथा में व्यास महर्षि कथा सुनने के लिए आये थे । ‘मेरे को ऐसा लगता है, मेरा पुत्र मेरे से भी श्रेष्ठ है । उसका ज्ञान- वैराग्य, उसकी प्रेम-लक्षणा भक्ति अलौकिक है ।’ –शुकदेवजी की कथा सुनने में व्यासजी को आनन्द आया।

कथा कीर्तन से सफल होती है । कथा का सोलह आना फल मिले, पुण्य मिले– ऐसी इच्छा हो, तो कथा में प्रेम से कीर्तन करो । कथा में वक्ता भगवद्गुणगान करता है । भगवान की मंगलमय लीला का वर्णन करता है । गुणसंकीर्त
न, लीला-संकीर्तन, नाम-संकीर्तन से कथा सफल होती है । वक्ता-श्रोता बहुत प्रेम से भगवान के नाम का जब कीर्तन करते हैं, तभी कथा सफल होती है । कथा का सोलह आना फल आपको मिले– ऐसी इच्छा हो, तो प्रेम से कीर्तन करो । कीर्तन में संकोच रखना नहीं । कीर्तन में जिसको संकोच होता है, वह समझे कि मेरा पाप बहुत है । कीर्तन में शर्म काहे की रखते हो ? वैष्णव को पाप करने में शर्म आती है । भगवान के नाम में जिसको शर्म आवे, वह वैष्णव नहीं है । आप प्रभु के प्यारे हो, आप वैष्णव हो, आप सब भगवान के अंश हो ।

श्रीमन्नारायण नारायण नारायण !
भज मन नारायण नारायण !
बदरी नारायण नारायण !
लक्ष्मी नारायण नारायण !

2 comments:

  1. रीमान जी यह पूरा वर्णन एकदम गलत है

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  2. श्रीमान जी यह पूरा वर्णन एकदम गलत है

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