छोटे गुरू
के
छक्के
(हास्य
व्यंग्य की कुण्डलियाँ)
लेखक :
प्रेमी मथुरिया
(प्रेमी बाबा)
प्रकाशक :
लोकसेवा प्रतिष्ठान
उषाकिरन प्लाजा,
डैम्पीयर नगर, मथुरा
मोबाइल : ०९४१५३८३६५५, ०९३५९५२६८६८
--------------------------------------------------------------------------------
छोटी सी बात
दुनिया में जो हो रहे,
बड़े-बड़े उत्पात।
सबके पीछे छिपी है, इक छोटी-सी बात।।
इक छोटी-सी बात, बड़े विप्लव करवाती।
समझ में आ जाये, तो बिगड़ी बात बनाती।।
‘छोटे गुरू’ बिचरते बातों की बगिया में।
बातों का लो मजा, रखा है क्या दुनिया में?
इसी चौखटे में पढ़ें, रोज नीय इक बात।
जिसमें छलकेंगे सदा, जनता के
जज्बात।।
जनता के जज्बात, और हालात शहर के।
सत्ता के षड़यंत्र, चेहरे आडम्बर के।।
‘छोटे गुरू’ लिए सिल-बट्टा यहाँ आ डटे।
सावधान हो जायें, शहर के सभी चौखटे।।
------------------------------------------
‘कौन
बड़ा उद्दण्ड’
व्यापारी नेता पिटे,
बंद हुआ बाजार।
मचा शहर में हर तरफ भीषण हा-हा कार।।
भीषण हा-हा कार, पुलिस का तांडव भारी।
देखि-देखि थर्राय गई,
जनता बेचारी।।
‘छोटे गुरू’ इस ‘ड्रामे’ का है कौन प्रणेता?
बंद हुआ बजार, पिटे व्यापारी नेता।।
नेता-अफसर में रही, हरदम होड़ प्रचंड।
हम दोनों के बीच में,
कौन बड़ा उद्दण्ड?
कौन बड़ा उद्दण्ड? रहेगा रुतवा किसका?
शहर जले तो जले, गम नहीं हमको इसका।।
भेद छिपे हैं राजनीति की इस चौसर में।
हरदम होड़ प्रचंड रही,
नेता-अफसर में।।
----------------------------
होलीगेट के होल
पढ़ना है तुमको अगर, मथुरा का भूगोल।
सबसे पहले देखिये, होली गेट के ‘होल’।।
होली गेट के ‘होल’ पोल खोलें शासन की।
करते हैं छवि नष्ट, नगर-देहरी-आँगन की।।
सबसे पहले मेन ‘होल’ से बचकर बढ़ना।
मथुरा का है भूगोल अगर तुमको पढ़ना।।
घण्टा घर का घर बचा,
घण्टा हुआ विलीन।
देखो अब इस ‘होल’ से आर-पार के सीन।।
आर-पार के सीन, अनोखी मथुरा नगरी।
दरवज्जे पर मंगल-कलश सरीखी ‘झंझरी’।।
सिकुड़ गया है ‘होल’ गेट का और शहर का।
घण्टा भी ना बचा, यहाँ के घण्टा घर का।।
----------------------------------
‘राम-नौमी
कौ मेला’
मेला ब्रज में राम की,
नौमी कौ मशहूर।
मंदिर-मंदिर राम के भीड़ रहै भरपूर।।
भीड़ रहै भरपूर, चौक-मंदिर के द्वार पै।
तुलसी-दरसन-मठ-मुंगी पै,
वंâसखर पै।।
राम-लला दरसन कों है रही ठेलम-ठेला।
ब्रज में है मशहूर, राम-नौमी कौ मेला।।
मथुरा में श्रीराम के,
मंदिर हैं दो-चार।
तौहू इनकी जानिए, महिमा अपरंपार।।
महिमा अपरंपार, अनौखा ठाकुर द्वारा।
रामघाट के ऊपर, बसा- ‘रामजी द्वारा’।।
भीड़ जुड़ै, जब होय राम-नौमी पतरा में।
अष्टभुजी गोपाल राम
के संग मथुरा में।।
----------------------
‘बाँके
बिहारी का हाई-टेक श्रंगार’
भक्ति-भाव पर चढ़ गया,
अब पैâशन का रंग।
सेवा और शृंगार का बदल गया है ढंग।।
बदल गया है ढंग, ढंग हैं सब नर-नारी।
हाई-टेक शृंगार किये,
इठलाएँ ‘बिहारी’।।
‘छोटे गुरु’ मुग्ध सेवायत के स्वभाव पर।
अब पैâशन का रंग चढ़ गया भक्ति-भाव पर।।
कित मुरली कित चंद्रिका,
कित गोपिन कौ साथ।
‘बाँके’ ठाकुर हँसि रहे, मोबाइल लै हाथ।।
मोबाइल लै हाथ, ड्रैस डी-सेण्ट बनाई।
जींस-शर्ट के संग रहि गई क्यों कर ‘टाई’।।
‘छोटे गुरु’ सेवायत ने मनमानी कर ली।
ढूँढ़ रहे हरिदास कहाँ पटुका, कित मुरली।।
------------------------------
‘पुतलों
का शमशान’
मथुरा में अब तक रहे केवल दो शमशान।
चक्रतीर्थ-ध्रुवतीर्थ से होता इनका ज्ञान।।
होता इनका ज्ञान, सिद्ध शमशन कहाते।
मुर्दा पूँâक सभी नर-नारी यहाँ नहाते।।
नौ नहान, दश गात्र, सभी जन यहाँ करामें।
अब तक दो शमशान रहे केवल मथुरा में।।
तिलकद्वार पर बन गया,
एक नया शमशान।
नामकरण इसका हुआ-‘पुतलों का श्माशान’।।
‘पुतलों का शमशान’, आये दिन
पुतले जलते।
इस मशान के सिद्ध पुरुष,
यहाँ रोज मचलते।।
नौ नहान, दश गात्र करें फिर अंबखार पर।
एक नया शमशान बन गया तिलकद्वार पर।।
----------------------------------------
अप्रेल फूल
हर दिन मूर्ख बना रही,
जनता को सरकार।
फिर पहली अप्रैल से,
क्या हमको दरकार।।
क्या हमको दरकार, मूर्खता-पर्व मनायें?
नित्य-कर्म को एक रोज केसे निपटायें?
हार गये हम, मूर्खों की आबादी गिन-गिन।
बना रही सरकार मूर्ख जनता को हर दिन।।
भरे पड़े हैं मूर्खश्री,
बुद्धिमान दो-चार।
बहुमत से बन जाये अब,
मूर्खों की सरकार।।
मूर्खों की सरकार, मूर्ख संसद बन जायें।
मूर्ख जगत में अपना ही परचम लहराये।।
इसी माँग पर भाँग छानकार अड़े पड़े हैं।
बुद्धिमान दो-चार, मूर्खश्री भरे पड़े हैं।।
---------------------------
मथुरा के तांत्रिक
दलपत खिड़की पर मिले,
पीरपंच के पीर।
सेठानी की उड़ गई, सोने की जंजीर।।
सोने की जंजीर, चलाया ऐसा चक्कर।
सम्मोहन के तंत्र-जाल में हुई घनचक्कर।।
जगह-जगह कर रहे तांत्रिक ऐसी हरकत।
अंतापाड़ा, पीरपंच या खिड़की दलपत।।
गली-गली में तांत्रिक करते हैं उत्पात।
भोले-भाले जनों को, ठगें लगाकर घात।।
ठगें लगाकर घात, जात उनकी नाहिं कोई।
धर्महीन ये अपनी बहना के बहनोई।।
मुख में रखते राम, छुरी रखते बगली में।
करते हैं उत्पात तांत्रिक गली-गली में।।
-------------------------------------------
‘ट्रेफिक-टैन्शन’
‘ट्रैफिक-टैन्शन’ झेलते, हर दिन रस्तागीर।
चौथ-वसूली में मगन,पुलिसिया आलमगीर।।
पुलिसिया आलमगीर, बेचते फुटपाथों
को।
राहगीर तुडवायें,पैरों को-हाथों को।।
मथुरा में यदि राह चलो, तो चलो ‘अटैन्शन’।
कदम-कदम पर यहाँ मिलेगा ‘ट्रैफिक-टैन्शन’।।
ठसके-से वाहन चलें, कसके
भाड़ा लैंय।
हँसके ग्राहक कछु कहैं, तो पुनि
गारी दैंय।।
तौ पुनि गारी दैंय, ड्राइवर-क्लीनर
दोनों।
सिटपिटाय वेंâ, तुरंत
सवारी पकड़ै कोनों।।
ऑटो-टैम्पो-बस-लॉरी के ऐसे ठसके।
ऊपरै-नीचे भरीं सवारी भी, ठस-ठस
के।।
--------------------------------
लाभ-पद बनाम लोभ-पद
जनपद से संसद तलक, चला विपद का दौर।
नहीं निरापद ‘लाभ-पद’, खोजे दूजी ठौर।।
खोजे दूजी ठौर, गौर से मेरे भाई!
पद ऐसा हो, जिससे हर दिन मिले मलाई।।
तुछ ‘लाभ-पद’ छोड़, गुजर जाओं अब हद से।
वरण ‘लोभ-पद’ करो, शुरू अपने जनपद से।।
पद की परिभाषा सखे! ऐसी देउ बनाय।
जिस पर ‘जन प्रतिनिधि’ रहे-‘लाभ-हीन’ कहलाय।।
‘लाभ-हीन’ कहलाय, लोभ का बनें जमाई।
पद के पद्मराग में रमें रहें हरजाई।।
इत्र धतूरे में नेता में चरित की आसा?
बदलेंगे मिली-बैठ, ‘लाभ-पद’ की परिभाषा।।
-----------------------------------
मथुरा में ‘नवदुर्गा’
मथुरा की रक्षा करें,
आदि शक्ति जगदम्ब।
इनके दर्शन के लिए, करिये नहीं विलम्ब।।
करिये नहीं विलम्ब, करें सबकी रखवाली।
‘महाविद्या’, ‘चर्चिका’, ‘चामुण्डा’ और ‘वंâकाली’।।
नवरात्रिन में लहरें लें भक्ति-धारा की।
आदि शक्ति जगदम्ब करें रक्षा मथुरा की।।
‘काली’ के दर्शन
करो, बिजलीघर के पास।
रस्ते में ‘बगलामुखी’, करें शत्रु का नाश।।
करें शत्रु का नाश, सुनेंगी टेर तुम्हारी।
भैंस बहोरा और मसानी की ‘पथवारी’।।
मंगली माता वर देती हैं खुशहाली के।
नौ रूपों में नित्यकरो दर्शन काली के।।
------------------------------
‘मथुरा
में लालू’
लालू ने मथुरा शहर में जब किया प्रवेश।
दंग रहे गये देखकर भीड़-भरा परिवेश।।
भीड़-भरा परिवेश, यहाँ की अल्हड़ताई।
फिकरेबाजी सुन-सुनकर बुद्धि चकराई।।
धक्का दै मुसकाएँ लोग ऐसे हैं चालू।
यदुवंशिन की रजधानी में फँस गये लालू।।
मंदिर कों चले, जहाँ द्वारकाधीश।
भक्त-जनों को भीड़ में ऐसे मिलें असीस।।
ऐसे मिलें असीस- नासपीटे बजमारे!!
दीखै नाहिं? कुचल डारे क्यों पाँव हमारे।।
चौबनजी चिल्लाय चल दर्इं अपने घर कों।
सकपकाय कें लालू बढ़े
पुन: मंदिर कों।।
-----------------------------
जमुना-छठ
घाटन पै जुरिबे लगे,
नर-नारिन के ठट्ठ।
लौ सखे! दरसन करें, आई जमुना-छट्ठ।।
आई जमुना-छट्ठ, सजीं झाँकी अलबेली।
जमुना-जल सों दूध-धार करती अठखोली।।
रीझ रहे देवता, हमारे इन ठाठन पै।
जमुना- छट्ठ कौ आज लग्यौ मेला घाटन पै।।
होती है ‘विश्रांत’ पै, घंटा धुनि घनघोर।
जमुना-छट्ठ की छटा सों,
सब हैं भाव-विभोर।।
सब हैं भाव-विभोर, महोत्सव मंगलकारी।
सतीघाट ते संतघाट तक मेला भारी।।
मथुरावासिन की, जमुना जीवन-जयोति है।
घंट-ध्वनि विश्रांत घाट पै नित होती है।।
--------------------------------
‘ब्रज
के वानर’
ब्रज में वानर कर रहे,
चारों ओर किलोल।
मंदिर, घाट, बजार में घूमें इनके टोल।।
घूमें इनके टोल, मजे से लूटें-खावें।
छत पर चढ़ि कें, र्इंट और पत्थर बरसावें।।
‘छोटे गुरू’ रहें आतंकित, नारी और नर।
चारों ओर किलोल कर रहे ब्रज में वानर।।
वृन्दावन में है गये बन्दर पॉकेटमार।
पर्स-केमरा झपटिकें,
चश्मा लेहिं उतार।।
चश्मा लेहिं उतार, दिखावें ऐसी घुड़की।
देनी पड़ै फिरौती इन्हें,
चना या गुड़ की।।
‘छोटे गुरू’ न जानें, क्या है इनके मन में।
बन्दर पॉकेटमार है गए वृन्दावन में।।
-----------------------------------
‘होलीगेट
पर नरककुण्ड’
मथुरा की ये ‘प्रौब्लम’, कौन इसे सुलझाय।
हर दिन होलीगेट पै, नरक कुण्ड बन जाय।।
नरक कुण्ड बन जाय, फेलती बदबू भारी।
तैर रहे मल-मूत्र, बिकल जनता बेचारी।।
फूटेगा जन-रोष, ये घंटी है खतरा की।
सुलझायेगा कौन, ‘प्रौब्लम’ ये मथुरा की?
गंदे पानी में करें,
कैसे रस्ता पार?
रिक्शा वाले ले रहे,
दाम एक के चार।।
दाम एक के चार, लै रहे आर-पार के।
लच्छन दीखें नहीं, समस्या के सुधार के।।
‘छोटे गुरू’ विराम लगा धंधे-पानी में।
कैसे रस्ता पार करें गंदे पानी में?
----------------------------------------------
‘ब्रज-कल्चर’ की घास
ब्रज के ‘संत-महन्त’ हों, ‘स्वामीजी’ या ‘व्यास’।
सभी आजकल चर रहे, ‘ब्रज-कल्चर’ की घास।।
‘ब्रज-कल्चर’ की घास, जुगाली करते घूमें।
ब्रज-रज छाँड़ि, चरण-रज नेताओं की चूमें।।
‘छोटे गुरू’ न रह पायें- सुख-सुविधा तज के।
‘स्वामीजी’ या ‘संत-महन्त’, ‘व्यास’ या ब्रज के।।
‘ब्रज-कल्चर’ की घास
में, भरे पौष्टिक तत्व।
धन के घोर घनत्व में,
इसका बड़ा महत्व।।
इसका बड़ा महत्व, आधुनिक मंच बनाते।
इल्मी लोगों से फिल्मी-पंâडा अपनाते।।
‘छोटे गुरू’ चलाते चैनल-चैनल पिक्चर।
‘स्वामी’, ‘संत-महन्त’, ‘व्यास’ चरते ‘ब्रज-कल्चर’।।
------------------------------------------
‘छपास
रोग’
अखबार में छप रहे- सहस्रनाम, स्तोत्र।
पत्रकारिता ने किया,
विस्मृत अपना गोत्र।।
विस्मृत अपना गोत्र,
छपें वंदन-अभिनंदन।
आखिर कब तक घिसते रहें मुफत का चंदन।।
‘छोटे गुरू’ छपास रोग फैला यारों में।
सहस्रनाम, स्तोत्र छप रहे अखबारों में।।
नेतागीरी में हुआ खबरों का यह हाल।
विज्ञप्ती दो शब्द की,
नामावली विशाल।।
नामावली विशाल, चाव से छपवायेंगे।
प्रेस-नोट के संग, नोट भी दे जायेंगे।।
‘छोटे गुरू’ नाम की बँटने लगी पंजीरी।
खबरों का यह हाल कर रही नेतागीरी।।
----------------------------------------
‘ठेके
पर सफाई’
सड़कों पर नाले चलें,
नाले में सब लोग।
वैतरणी के पार हैं, सुरपुर का संजोग।।
सुरपुर का संजोग, भोग कर्मों का भारी।
तीन लोक से न्यारी, मथुरापुरी हमारी।।
तरस आ गया शासन में बैठे लड़कों पर।
कहते हैं- नाले न बहेंगे, अब सड़कों पर।।
नगर-सफाई के लिए ‘प्लान’ हुआ तैयार।
जमादार की जगह अब होंगे ठेकेदार।।
होंगे ठेकेदार, सफाई करने वाले।
करवा लेना स्वच्छ, सभी नाले-परनाले।।
लेकिन, निकले चोर-चोर मौसेरे भाई।
तो फिर समझो कैसी होगी नगर-सफाई?
---------------------------------------
‘द्वापर
में मोबाइल’
द्वापर में होता अगर,
ये मोबाइल-फोन।
कृष्ण-विरह में राधिका,
क्यों रहती फिर मौन?
क्यों रहती फिर मौन?
‘कॉल’ कान्हा को करती।
वृन्दावन में बैठि, व्यर्थ आहें क्यों भरती?
मिट जाती दूरियाँ, योजनों की पल भर में।
ये मोबाइल-फोन अगर होता द्वापर में।।
वृन्दावन से द्वारका,
फिर न रहती दूर।
‘इयर-फोन’ पर गूँजती, बंशी धुन भरपूर।।
बंशी धुन भरपूर, श्याम सुमधुर सुर भरते।
नजर बचाकर रूक्मिणि की,
‘एस-एम-एस’ करते।।
‘नेटवर्वâ’ से रहते जुड़े राधिका-मोहन।
फिर न रहता दूर द्वारका से वृन्दावन।।
-------------------------------------
‘पानी-पाउच’
ब्रज-भूमि के थे कभी,
ये अद्भुत शृंगार।
कूप-सरोवर, जमुना-जल, ध्वल दूध की धार।।
ध्वल दूध की धार, और पनघट-पनिहारिन।
लुप्त भये सब, आए हैं अब ऐसे दुर्दिन।।
‘पानी-पाउच’ पीकर दिन काटें गरमी के।
ऐसे पूâटे भाग्य, हाय या ब्रज-भूमि के।।
‘पाउच’ में मदिरा मिलै, ‘पाउच’ में नमकीन।
‘पाउच’ में ही भाँग कौ चूरन हैं रंगीन।।
चूरन है रंगीन, हर तरफ ‘पाउच’ की जै।
दूध, चून, घी-तेल, सभी ‘पाउच’ में लीजै।।
आय गयौ है अब तौ ‘पाउच’-युग सचमुच में।
लोटा-डोरी छोड़, पियौ पानी ‘पाउच’ में।।
-------------------------------------------
‘मथुरा
के रोड’
चन्द्र-धरातल सरीखे,
हैं मथुरा के रोड।
जिन पर दौड़ें रात-दिन,
वाहन ओवर-लोड।।
वाहन ओवर-लोड, करें चालाक मनमानी।
झेल रही है जनता इनकी कारस्तानी।।
पैसा लेकर पुलिस बढ़ाती,
इनका सम्बल।
वाहन हैं निद्र्वन्द्व,
रोड हैं चन्द्र-धरातल।।
सड़कों पर गढ्ढे बने,
गढ्ढों में है कीच।
जगह-जगह सीवर बहे, मेन रोड के बीच।।
मेन रोड के बीच, बहै बैतरनी धारा।
नरक-निवासी भये, नरक है नगर हमारा।।
थोथी नेतागीरी चढ़ी, नये लड़कों पर।
चाल-चलन पर पड़ें, याकि गढ्ढे सड़कों पर।।
-----------------------------------------
‘मथुरा
के गंज’
होता है यह देखकर मन को भारी रंज।
धीरे-धीरे शहर के, गंजे हो गये गंज।।
गंजे हो गये गंज, कभी थे वैभवशाली।
अब न बची यहाँ, ठसक वो पहले वाली।।
फिर भी इनके नाम शहर अब भी ढोता है।
रहे नाम के गंज, रंज मन को होता है।।
हाल न पूछो गंज का- ‘हालनगंज’ मलूक।
देख ‘कलक्टरगंज’ को, उठे हिया में हूक।।
उठे हिया में हूक, दशा ‘गोविन्दगंज’ की।
जनता है बेहाल यहाँ,
‘जनरैलगंज’ की।।
‘रोशनगंज’ कहाँ रोशन है- समझो,
बूझो।
‘लालागंज’ उदास, गंज का हाल न पूछो।।
------------------------------------
‘महँगाई
की टाँग’
मस्ती में अड़ गयी, महँगाई की टाँग।
दुगने दाम चुकाय वेंâ,
वैâसे छानें भाँग?
वैâसे छानें भाँग, करें वैâसे कविताई?
वैâसे लिखें कविता, दोहा या चौपाई?
सम्पादक जी! लिखें कहा,
हालत खस्ती में?
महँगाई की टाँग अड़ गयी है मस्ती मैं।।
सूनी-सूनी सिल पड़ी, लोढ़ा लकुवा-ग्रस्त।
बिना भाँग के है गयी,
काव्य-कला हू पस्त।।
काव्य-कला हू पस्त, त्रस्त सरसुती बिचारी।
छन्द पड़ गये मन्द, शब्द भरते सिसकारी।।
‘छोटे गुरू’ भाँग की कीमत है गयी दूरी।
लोढ़ा लकुवा-ग्रस्त, सिल पड़ी सूनी-सूनी।।
---------------------------------------
‘पॉलीथीन का जहर’
अलबेला मथुरा शहर, कैसे बने हसीन।
पर्यावरण बिगाड़ते, प्लास्टिक-पॉलीथीन।।
प्लास्टिक-पालीथीन, शहर को करते चौपट।
नाली-नाले जाम, हर तरफ वूâड़ा-करकट।।
‘छोटे गुरू’ सफाई में ये बना झमेला।
कैसे बने हसीन, शहर मथुरा अलबेला।।
झोला रक्खें साथ में जब जायें बाजार।
पॉलीथीन-प्रयोग से करें सदा इन्कार।।
करें सदा इन्कार, विष-बुझी है ये थैली।
इसके चलते, पावन यमुना भी है मैली।।
‘छोटे गुरू’ है पॉलीथीन जहर का गोला।
जब जायें बाजार, साथ में रखें झोला।।
----------------------------------
‘वोटों
की क्यारी’
रायबरेली में मचा, फिर चुनाव का शोर।
बड़े-बड़े दिग्गज यहाँ,
बन बैठे रणछोर।।
बन बैठे रणछोर, ‘सोनिया-पैâक्टर’ भारी।
यहाँ लगायी ‘कुनबे’ ने वोटों की क्यारी।।
संसद की यह सीट बन गयी जटिल पहेली।
काँग्रेस की सगी सहेली रायबरेली।।
वोटों की क्यारी, निरखि, वूâद पड़े कटियार।
हाई-टैंशन तार पर, जैसे कटियामार।।
जैसे कटियामार, बँधेगी किसे कलंगी?
देशी देवर ‘बजरंगी’, भौजाई ‘फिरंगी’।।
‘छोटे-गुरू’ मिलेगी किसको मात करारी।
कूद पड़े कटियार, देख वोटों की क्यारी।।
-------------------------------------
'खतरे में रोटी’
खाना है जो कल तुझे,
उसको खा ले आज।
हर दिन महँगे हो रहे,
सब्जी और अनाज।।
सब्जी और अनाज, पड़ी खतरे में रोटी।
अब तो शायद, तन पर भी न बचे लंगोटी।।
‘छोटे गुरू’ गरीबों का नहीं ठौर ठिकाना।
खा ले सब कुछ, तुझे कल जो है खाना।।
मंडी में बढ़ने लगे, नई फसल के दाम।
महँगाई की मार से जीना हुआ हराम।।
जीना हुआ हराम, बढ़ी गेहूँ की कीमत।
खतरनाक है बड़ी-बड़ी फर्मों की नीयत।।
है भारी पासंग, तराजू की डंडी में।
पूँजीवादी पे्रत विचरते हैं मंडी में।।
-------------------------------------
‘नीम-हकीम’
गली-गली में घूमते डॉक्टर झोलाछाप।
कलियुग में पैदा भये,
‘धनवन्तरि’ के बाप।।
‘धन्वन्तरि’ के बाप, कर रहे ऐसी ‘सेवा’।
बे-अंदाज इलाज बनै, प्राणन कौ लेवा।।
‘छोटे गुरू’ दबाकर चलें, दवा बगली में।
डॉक्टर झोलाछाप मिलेंगे गली-गली में।।
न औषधि का ज्ञान है,
ना कोई
तालीम।
क्लीनिक एक सजाय के,
बन गए नीम-हकीम।।
बन गए नीम-हकीम, कहाते ‘डॉक्टर साहब’।
बेशक मरे मरीज, इन्हैं पैसों से मतलब।।
‘छोटे गुरू’ दवाखाना है पूर्ण अवधि का।
ना कोई तालीम, ज्ञान भी नहीं औषधि का।।
---------------------------------
‘गैस-सिलेण्डर’
चूल्हा-चौका हो गये,
बीते युग की बात।
अब तो घर-घर ‘किचिन’ हैं, नव-युग की सौगात।।
नव-युग की सौगात, फटाफट बने रसोई।
लकड़ी और कोयले को, पूछे नहीं कोई।।
‘छोटे गुरू’ जमाना बीत गया ‘उपलों’ का।
बीते युग की बात हो गये चूल्हा-चौका।।
गैस-सिलेण्डर बन गए हैं र्इंधन का आधार।
बस्ती और बाजार में,
है इनकी भरमार।।
है इनकी भरमार, खर्च को खोलो अंटी।
डुप्लीकेट सिलेण्डर है,
खतरे की घंटी।।
‘छोटे गुरू’ धमाके से ना होय बवंडर।
र्इंधन का आधार बन गये गैस सिलेण्डर।।
----------------------------------------
‘रिश्ते-ही-रिश्ते’
रिश्ते-ही-रिश्ते मिलें,
यहाँ थोक-के-भाव।
इनसे मिलिये, यदि तुम्हें है शादी का चाव।।
है शादी का चाव, विधुर हों या कि वुंâवारे।
या तलाक लेकर, फिरते हों मारे-मारे।।
‘छोटे-गुरू’ बने ‘मैरिकज-ऐजेन्ट’ फरिश्ते।
मिलें थोक के भाव जहाँ रिश्ते-ही-रिश्ते।।
‘मैरिज-ब्यूरो’ में लगी, रिश्तों की दूकान।
चट मँगनी पट शादियाँ करवाते श्रीमान्।
करवाते श्रीमान फटाफट ऐसे रिश्ते।
जो बनकर नासूर रहें जीवनभर रिसते।।
‘छोटे गुरू’ शून्य में अपनी किस्मत घूरो।
रिश्तों की दूकान चलाते ‘मैरिज-ब्यूरो।।
-----------------------------------
‘हरियाली
की हत्या’
उद्यानों से था कभी,
शहर मेरा गुलजार।
लेकिन अब तो हर तरफ पसर गये बाजार।।
पसर गये बाजार, जताते ‘खुशहाली’ को?
धन के धेनुक-असुर, चर गये हरियाली को।।
‘छोटे गुरू’ कहें क्या ऐसे नादानों से।
शहर मेरा गुलजार कभी था उद्यानों से।।
रोज सवेरे पार्वâ में, करते थे व्यायाम।
फिर बगीचियों पर सभी,
जाते थे हर शाम।।
जाते थे हर शाम, भाँग-बूटी छनती थी।
हरियाली के बीच, दाल-बाटी बनती थी।।
‘छोटे गुरू’ अभी तक हैं, यादों के घेरे में।
करते थे व्यायाम पार्वâ
में रोज सवेरे।।
---------------------------------------
‘बाबाजी
का बर्थ-डे’
बाबाजी का ‘बर्थ-डे’, चेलाओं की मौज।
चापलूस सब जुट गये, ले चमचों की फौज।।
ले चमचों की फौज, नीति-मर्यादा त्यागी।
राग-रागिनी-रस में डूब गये ‘बैरागी’।।
‘छोटे गुरू’ कम्पटीशन है लफ्फाजी का।
चेलाओं की मौज, ‘बर्थ-डे’ बाबाजी का।।
हर दिन हैप्पी बर्थ-डे,
हर संध्या को श्राद्ध।
जीवन में संन्यास की महिमा बड़ी अगाध।।
महिमा बड़ी अगाध, साध मन में ना कोई।
जन्म-मरण को सम समझे,
संन्यासी सोई।।
‘छोटे गुरू’ न डस पाए, माया की नागिन।
हर संध्या को श्राद्ध,
बर्थ-डे हैप्पी हर दिन।।
-----------------------------------------
‘न्यौतौ
बोलो संग’
नाऊ ते ज्यों ही सुन्यौ,
न्यौतौ बोलौ संग।
किये गरारे नौंन के,
ता पै छानी भंग।।
ता पै छानी भंग, रंग आँखिन में आए।
मन में लियें उमंग, दिव्य भोजन कूँ
धाए।।
‘छोटे गुरू’ न पीछें पंगत में काहू ते।
न्यौतौ बोलौ संग सुन्यौ ज्यों ही नाऊ ते।।
सब्जी में ऐसौ बन्यौ,
झन्नाटे कौ झोल।
चार सकोरा झोल नें, दिए सभी सुर खोल।।
दिए सभी सुर खोल, कचौड़ी, खस्ता, पूरी।
लड़ुआ, मोहनथार संग पेठौ अंगूरी।।
‘छोटे गुरू’ सौंठ रक्षा करती कब्जी में।
सब ‘जी’ अटक्यौ किन्तु, झोल वारी सब्जी में।।
----------------------------------------
जमुना जी के पूत हम
यमुना जी के पूत हम,
मामा है यमराज।
फिर काहू सों क्यों डरें, हम जैसे रंगबाज॥
हम जैसे रंगबाज, करें नित सबकी खवारी।
नंग बड़े परमेसुर ते, ये नीति
हमारी॥
भांग-भरे नौ घडा धरे हैं नानाजी के।
याते हैं निर्द्वन्द्व,
पूत हम यमुनाजी के॥
यमुना मईया नें दियौ,
हमकों यह उपदेस।
चार महीना घर रहौ, फिर जाऔ परदेस॥
फिर जाऔ परदेस, बनाऔ चेली-चेला।
घरवारी कों देहु कमाई,
रखौ न धेला॥
'छोटे गुरू' संभारेंगे
बलराम कन्हैया।
हमकों यह उपदेस दे रही यमुना मईया॥
-------------------------------------
गर्मी ने चौपट किया
आग बदसती गगन से, लू चल
रही प्रचंड।
गर्म तवे सा तप रहा है सारा ब्रह्मण्ड॥
है सारा ब्रह्मण्ड, विकल हैं प्राणी सारे।
छटपटा रहे जीव जन्तु गर्मी के मारे॥
'छोटे गुरू' पसीना टप-टप टपके तन से।
लु चल रही प्रचंड बरसती आग गगन से॥
गर्मी ने चौपट किया सबका मूड-मिजाज।
बिजली करे लुका छिपी भयी कोढ़ में खाज॥
भयी कोढ में खाज
व्यर्थ हैं कूलर-ए.सी.।
पंखा, फ्रिज, इनवर्टर की भी ऐसी-तेसी॥
हद कर दी है शासन की भी बेशर्मी ने।
मूढ मिजाज किया
चौपट सब गर्मी ने॥
---------------------------------------
शिक्षा की दूकान
भटक रहे हैं छात्रगण,
अभिभावक हैरान।
गली-गली में खुल गयीं,
शिक्षा की दूकान॥
शिक्षा की दूकान, हो रही मारा-मारी।
होये 'ऐडमीशन' जब- दो 'डोनेशन' भारी॥
बीस तरह की फीस, गटागट गटक रहे हैं।
अभिभावक हैरान, छात्रगण भटक रहे हैं॥
धंधे में घाटा नहीं, 'ग्रांट' देय
सरकार।
के.जी. से कॉलेज तक,
'वैरायटी' हजार॥
'वैरायटी' हजार, चलाते ऐसा चक्कर।
घर-कुनबा के संग, उड़ावें नित घी-शक्कर।
'छोटे गुरू' न फंसते, कानूनी फंदे में ।
'ग्रांट' देय सरकार, नहीं घाटा धंधे में ॥
---------------------------------------
पत्थरों का शहर
मथुरा में पथरा बिछे,
पत्थर जड़े मकान।
पत्थर के मंदिर यहाँ,
पत्थर के भगवान॥
पत्थर के भगवान, घाट-घर सब पत्थर के।
पत्थर के इंसान, कलेजे भी पत्थर के॥
'छोटे गुरू' ये शीशे का दिल है ख तरा में।
पत्थर जडे मकान, बिछे पथरा मथुरा में॥
पत्थर से हर दिन यहाँ टक्राते हैं 'फूल'।
हर पत्थर को देवता हमने किया कबूल॥
हमने किया कबूल पत्थरों से यारी को।
शायद ही समझे कोई इस लाचारी को॥
'छोटे गुरू' डरो न, चूर होने के डर से।
हर दिन टकराना है तुम्हें यहाँ पत्थर से॥
------------------------------------------
यमुना तट के प्यासे
इसको कहें विडम्बना,
या कर्मों का भोग।
पानी सूखा शहर का, प्यासे भटकें लोग॥
प्यासे भटकें लोग, बाल्टी-गगरा रीते।
नल से जल भरने में होते रोज फजीते॥
'छोटे गुरू' सुनाऐं व्यथा-कथा
किस-किस को।
कहें भोग कर्मों का,
या विडम्बना इसको॥
खरदूषण करते यहाँ, पर्यावरण सुधार।
यमुनाजी में बह रही दूषित जल की धार॥
दूषित जल की धार, देखिये अजब तमाशा।
नदी किनारे बसा नगर,
फिर भी है प्यासा॥
'छोटे गुरू' बढ़ रहा है जल-वायु प्रदूषण।
पर्यावरण सुधार यहाँ करते खरदूषण॥
-------------------------------------------
मौत माँगते बुजुर्ग
अपने-अपने स्वार्थ में,
भये सभी जन लीन।
मानवता होने लगी है,
संवेदन-हीन॥
है संवेदन-हीन, दया-ममता बिसराई।
निर्ममता से मार रहे भाई को भाई॥
बिखर रहे हैं हाय, मधुर रिश्तों के सपने।
भये सभी जन लीन, स्वार्थ में अपने-अपने॥
माना जाता था जिन्हें,
संस्कार के दुर्ग।
भीख माँगते मौत की, अब वे दुखी बुजुर्ग॥
अब वे दुखी बुजुर्ग,
उपेक्षा झेल रहे हैं।
उनके दर्दों से अपने ही खेल रहे हैं॥
'छोटे गुरू' बुजुर्गो का सबसे नाता था।
संस्कार के दुर्ग जिन्हें माना जाता था॥
---------------------------------------
सड़कों पर मयखाने
मदिरा पीकर झूमते हैं सड़कों पर लोग।
पावन इस बृजभूमि को,
लगा ये कैसा रोग?
लगा ये कैसा रोग, ये कैसा नया जमाना?
फुटपाथों पर खुलेआम चलता मयखाना।
'छोटे गुरू' शाम को जुट जाते हैं लोफर।
लोग झूमते हें सड कों पर मदिरा पीकर॥
व्हिस्की, रम, ठर्रा, हुए मस्ती के सामान।
जगह-जगह पर खुल गयीं,
बीयर की दूकान॥
बीयर की दूकान, मजे से पीओ-खाओ।
लाज-शर्म को छोड , खूब हुड दंग मचाओ॥
'छोटे गुरू' गर्म करते रहो जेब पुलिस की।
मस्ती के सामान हुए रम,
ठर्रा व्हिस्की॥
-----------------------------------------
शिक्षा की दूकान
भटक रहे हैं छात्रगण,
अभिभावक हैरान।
गली-गली में खुल गयीं,
शिक्षा की दूकान॥
शिक्षा की दूकान, हो रही मारा-मारी।
होये 'ऐडमीशन' जब- दो 'डोनेशन' भारी॥
बीस तरह की फीस, गटागट गटक रहे हैं।
अभिभावक हैरान, छात्रगण भटक रहे हैं॥
धंधे में घाटा नहीं, 'ग्रांट' देय
सरकार।
के.जी. से कॉलेज तक,
'वैरायटी' हजार॥
'वैरायटी' हजार, चलाते ऐसा चक्कर।
घर-कुनबा के संग, उड़ावें नित घी-शक्कर।
'छोटे गुरू' न फंसते, कानूनी फंदे में ।
'ग्रांट' देय सरकार, नहीं घाटा धंधे में ॥
--------------------------------------
आया है बैसाख
मौसम में कायम हुई, अब गरमी की साख।
चैत बिताकर चैन से, आया है बैसाख॥
आया है बैसाख, घाम करती है घायल।
प्यास चटखती पल-पल, माँग रही शीतल जल॥
'छोटे गुरू' पसीना छूट रहा दम-दम में।
साख हुई कायम गरमी की,
अब मौसम में॥
गरमी से तन-बदन को, रखते हैं महफ़ूज ।
ककड ी, खिरनी, फालसे, खरबूजे, तरबूज॥
खरबूजे, तरबूज, पीजिए सत्तू ठण्डा।
बैसाखी गरमी से, बचने का ये 'फण्डा'॥
'छोटे गुरू' प्रखर लू चलती, बेशरमी से ।
रखो सदा महफ ूज , तन-बदन इस गरमी से॥
----------------------------------------------
खान-पान का नया जमाना
नया जमाना रच रहा, ऐसा कुछ माहौल।
बिगड़ रहा है शहर में,
खान-पान का डौल॥
खान-पान का डौल, 'फूड' सब भये फरेबी।
अब न कलेवा रूचै, कचौड ी और जलेबी॥
'छोटे गुरू' शुरू हो गया है 'कुल्चे' खाना।
ऐसा कुछ माहौल रच रहा नया जमाना॥
बिकते हैं बाजार में,
मैगी-चाऊमीन।
अब कोई पूछे नहीं, चाट और नमकीन॥
चाट और नमकीन, दूध, लस्सी, ठण्डाई।
पैप्सी, कोक, और बीयर ने धूम मचाई॥
'छोटे गुरू' ढकेलों पर अण्डे सिंकते हैं।
मैगी-चाऊमीन बजारों में बिकते हैं॥
--------------------------------------
गौ-हत्या का पाप
इस वसुधा पर कृष्ण भी,
बन कर रहे गोपाल।
बन-बन गाय चरायकर, ब्रज को किया निहाल॥
ब्रज को किया निहाल,
सँवारा था गो-धन को।
'गो-वर्(न' के लिए उठाया गोवर्धन को॥
'छोटे गुरू' लकुट कर में, कामर कंधा पर।
बन कर रहे गोपाल कृष्ण भी इस वसुधा पर॥
लेकिन अब यह देखकर, होता है संताप।
ब्रजभूमी में बढ़ रहा,
गौ-हत्या का पाप॥
गौ-हत्या का पाप, चल रहे हैं कट्टीघर।
संविधान को सरे आम ठैंगा दिखलाकर॥
'छोटे गुरू' कल्पना ब्रज की कैसी गऊ बिन।
होता है संताप देखकर अब यह, लेकिन॥
----------------------------------------
मिलावटी माल
बाजारों में बिक रहा है मिलावटी माल।
शुद्ध वस्तुओं का हुआ जैसे घोर अकाल॥
जैसे घोर अकाल, दूध 'सिंथेटिक' बनता।
घी के संग 'बटर-ऑयल' खाती है जनता॥
'छोटे गुरू' छप रहीं खबरें अखबारों
में।
सब मिलावटी माल बिक रहा बाजारों में
आटे में कंकड़ पिसें,
लाल मिर्च में ईंट।
मिला रहे हैं हर्र में ये चूहे की बीट॥
ये चूहे की बीट, मिलावट भरे मसाले।
बीज पपीते के काली मिर्चों में डाले॥
'छोटे गुरू' खरीदो ये सब कुछ घाटे में।
लाल मिर्च में ईंट पिसें कंकड आटे में॥
-------------------------------------
नये जिलाधीश
मथुरा में अब आ गये डी एम, टी एन सिंह।
जिलाधीश कहिए इन्हें,
या जनपद के किंग॥
या जनपद के किंग, रिंगमास्टर शासन के।
नये नियम तैयार करेंगे अनुशासन के॥
जनपद का विकास हो शायद सही दिशा में।
डी एम, टी एन सिंह आ गये अब मथुरा में॥
चित्रकूट, मंदाकिनी, कामदगिरि की खोह।
ब्यापेगा नहिं आपको,
इनका असह बिछोह॥
इनका असह बिछोह, भक्ति की अविरल धारा।
ब्रज में भी है यमुनातट,
गोवर्धन प्यारा॥
'छोटे गुरू' यहाँ वृन्दावन लागे नीको।
रामजानकी संग भजौ श्रीराधाजी को॥
---------------------------------------
बिजली-पानी
बिजली-पानी से बँधी,
है जीवन की डोर।
फिर भी इनका हो रहा,
दुरुपयोग चहुँओर॥
दुरूपयोग चहुँओर, शोर सब मचा रहे हैं।
व्यर्थ प्रदर्शन-धरना,
नाटक रचा रहे हैं॥
'छोटे गुरू' बाज आकर इस मनमानी से।
जीवन की यह डोर बॉंधी बिजली-पानी से॥
अनुशासन से कीजिए, इनको इस्तेमाल।
बिजली-पानी का अब, होगा विकट अकाल॥
होगा विकट अकाल, पड़ेगा ऐसा टोटा।
मँहगी बिजली का भी फिक्स रहेगा कोटा॥
'छोटे गुरू' मिलेगा पानी भी राशन से।
इनको इस्तेमाल कीजिए अनुशासन से॥
-----------------------------------
बिजली का क्या काम?
अपने मथुरा शहर में बिजली का क्या काम?
यहाँ अंधेरी रात में जन्मे थे घनश्याम॥
जन्मे थे घनश्याम, अंधेरे कारागृह में।
जहाँ अंधेरे भी रहते थे सहमे-सहमे॥
'छोटे गुरू' अंधेरों में प्रकाश के सपने?
बिजली का क्या काम मथुरा में अपने॥
छूट गयी थी कंस के हाथों से अनयास।
बिजली बन कर दे रही,
जग को वही प्रकाश॥
जग को वही प्रकाश, योगमाया कहलाती।
क्रूर कंस के हाथ भला वो कैसे आती?
'छोटे गुरू' इसी से शायद रूठ गयी थी।
हाथों से अनायास कंस के छूट गयी थी॥
--------------------------------------
गोवर्धन की गैल में
गोवर्धन की गैल में कस्बा, बस्यौ अड़ींग।
अडिग तहाँ की है गढी,
लोग हाँकते डींग॥
लोग हाँकते डींग, भई वो बात पुरानी।
अब खण्डहर कह रहे, गढी की करुण कहानी॥
'छोटे गुरू' यहाँ दुर्गति है, जन-जीवन की।
कस्बा बस्यौ अडींग, गैल में गोवर्धन की॥
गड्ढे हैं बाजार में,
गढी भई बेजार।
आये सडक सुधारने, टुच्चे ठेकेदार॥
टुच्चे ठेकेदार, कर रहे झाँसापट्टी।
गिट्टी बिना बिछाय दई सडकन पै मट्टी॥
'छोटे गुरू' कमीशन खोरी के ये अड्डे।
गढी भई बेजार, बजारों में हैं गड्ढे।
----------------------------------------
सट्टेबाजी में
सट्टेबाजी में भये, कितने लोग तबाह।
तुरत 'सवा के सौ' बनें, फिर भी है यह चाह॥
फिर भी है यह चाह, राह अंधी गलियों की।
जहाँ तिजोरी भरतीं सिर्फ महाबलियों की॥
'छोटे गुरू' गरीब फँस गए लफ्फाजी में।
कितने लोग तबाह भए सट्टेबाजी में॥
सट्टे में दौलत गयी,
रट्टे में गयौ ज्ञान।
काल-झपट्टे में कबहुँ,
निकसि जाएँगे प्रान॥
निकसि जाएँगे प्रान,
व्यर्थ में जनम गँवायौ।
फँसि कुकर्म में, धर्म-मर्म कूं समझ न पायौ॥
'छोटे गुरू' खर्च डारी स्वासें बट्टे में।
रट्टे में गयौ ज्ञान,
गई दौलत सट्टे में॥
---------------------------------------
जीव से बड़ी जीविका
जीवन रस है जीविका, जीने का आधार।
कभी किसी की जीविका इसीलिए मत मार॥
इसीलिए मत मार, जीव से बड़ी जीविका।
भले-बुरे कर्मों में,
इसकी विशद भूमिका
'छोटे गुरू' इसी से मिलता है यश-अपयश।
जीने का आधार जीविका,
है जीवन रस॥
रोजी-रोटी के लिए भटक रहा इंसान।
इसीलिए है श्रेष्ठतम् सिर्फ जीविका-दान॥
सिर्फ जीविका-दान, मान-सम्मान दिलाता।
पाता है आशीष अनगिनत,
इसका दाता॥
'छोटे गुरू' करो मत इसमें नीयत खोटी।
भटक रहा इंसान ढँूढता रोजी-रोटी॥
-----------------------------------
विप्र समाज
कैसे होगा संगठित, ब्रज का विप्र समाज?
परशुराम के नाम पर, बिखरे जलसे बाज॥
बिखरे जलसे बाज, चाह है सिर्फ नाम की।
रोज जयंती मना रहे हैं परशुराम की॥
'छोटे गुरू' जाति मुखिया भये ऐसे वैसे।
ब्रज का विप्र समाज संगठित होगा कैसे?
विप्र वंश की एकता इनने दीनी खोय।
एक घरा में सौ मते, सुमति कहाँ ते होय?
सुमति कहाँ ते होय, सभी सरदार बने हैं।
असरदार संगठन बनाने के सपने हैं॥
'छोटे गुरू' झलक नहीं इनमें ब्रह्म अंश की।
इनने दीनी खोय एकता विप्र वंश की॥
---------------------------------------
आरक्षण का भूत
जागृत फिर से हो गया,
आरक्षण का भूत।
ये सामाजिक न्याय है,
या कोई 'करतूत'॥
या कोई करतूत, वोट के गुणा-गणित हैं।
राजनीति में ऐसे 'फार्मूले' अगणित हैं॥
'छोटे गुरू' यही है नेताओं की फितरत।
आरक्षण का भूत हो गया,
फिर से जागृत॥
आरक्षण में हो गया, टुकड़े सभी समाज।
फिर भी नेता कौम को,
आई शर्म न लाज॥
आई शर्म न लाज, बनाए अगडे-पिछडे।
जाति-वर्ण का भेद, कराये हर दिन झगडे॥
'छोटे गुरू' भर गया, जाति-द्रोह कण-कण में।
टुकडे सभी समाज हो गया आरक्षण में॥
--------------------------------------
नोटों का होम
शादी में करना अगर है ,
नौटों का होम।
झटपट बुक कर डालिए, कोई मैरिज होम॥
कोई मैरिज होम, किराये का आयोजन।
खड़े-खडे मेहमान करें,
जहाँ कौआ भोजन॥
'छोटे गुरू' कसर मत छोडो बरबादी में।
करना है नोटों का होम अगर शादी में॥
भूले रीति-रिवाज सब,
मर्यादा दई त्याग।
गीत-बधाये छोड कें, गावें
फिल्मी-राग॥
गावें फिल्मी-राग, डाँस करते हैं डिस्को।
नेग निछावर छोड , लिफाफा देकर खिसको॥
'छोटे गुरू' शान में डोलें, फूले-फूले।
त्यागे रीति-रिवाज सभी मर्यादा भूले॥
----------------------------------------
फूल बंगला बिहारीजी के
फूलन के बँगला बने, फूलन के सिंगार।
फूलन की लड़ियाँ लगीं,
फूलन के गलहार॥
फूलन के गलहार, मनोहर चितवन प्यारी।
वृन्दावन में बैठे बाँके कुंज बिहारी॥
'छोटे गुरू' कटारीधार नैन हैं इनके।
फूलन के सिंगार, बने बँगला फूलन के॥
कुंज बिहारी की गली,
रहती है मालामाल।
एक ओर 'माला' बिकें, एक ओर तर 'माल'॥
एक ओर तर 'माल', भक्ति-भावों के झूले।
जज मानन को देखि, गुसाईं डोलें फूले॥
'छोटे गुरू' 'माल' के हित ही 'माला' डारी।
रहती मालामाल गली, जहँ कुंज बिहारी॥
---------------------------------------
मुर्दों की जान ख़तरे में!
ख़तरे में है पड गई, मुर्दों
की भी जान।
मुर्दघाट पर जा बसे,
अब जिंदा इन्सान॥
अब जिंदा इन्सान, बस गईं हैं कॉलोनी।
कब्जा करने में कर दी होनी-अनहोनी॥
'छोटे गुरू' गुरूर भरा, कतरे-कतरे में।
मुर्दों की भी जान पड
गई है खतरे में॥
अर्थी को रस्ता नहीं,
चिता लगे किस ठौर।
मुर्दों को भी चाहिए,
कहीं ठिकाना और॥
कहीं ठिकाना और, दौर दौलतवालों का।
जिंदों ने खात्मा कर दिया बेतालों का॥
'छोटे गुरू' अर्थ से मतलब है 'अर्थी' को।
चिता लगे किस ठौर, नहीं रस्ता अर्थी को॥
-------------------------------------
हिन्दू-होटल
आये थे वे शहर में, पहली-पहली बार।
कंठीधारी वैष्णव, पंडित रामदुलार॥
पंडित रामदुलार, सफर से थके हुए थे।
संस्कार हिंदू-संस्कृति के पके हुए थे॥
'छोटे गुरू' भूख के मारे अकुलाए थे।
पहली-पहली बार शहर में वे आये थे॥
'हिन्दू-होटल' देखकर, ठिठके रामदुलार।
भोजन 'शु(-पवित्र' का, 'बोर्ड' रहे थे निहार॥
'बोर्ड' रहे थे निहार, मगर था अचरज भारी।
सजे हुए थे वहाँ, मीट-मछली-तरकारी॥
'छोटे गुरू' रहस्य समझ में आया टोटल।
हिन्दू हो तो टल, मतलब है 'हिन्दू-होटल'॥
---------------------------------------------
कैसे उडैं पतंग?
महँगाई ने कर दिया, सबका हुलिया तंग।
जेठ-दशहरा में कहो, कैसे उड़ैं पतंग?
कैसे पडैं पतंग? देख महँगाई लीला।
'ढाँचा' तक ना बचा, हो गया माँझा ढीला॥
'छोटे गुरू' पेंच डाले हैं 'हरजाई' ने।
सबका हुलिया तंग कर दिया महँगाई ने॥
'हुचका' हिचकी ले रहा, चरखी है कमजोर।
'जोते' बाँधें किस तरह, गाँठ-गठीली डोर॥
गाँठ-गठीली डोर, समस्याओं का 'पुंछल्ला।
'हत्थे' खेंच मचावें 'वो-काटे' का हल्ला।
'छोटे गुरू' कहाँ है 'नौसेरा' सचमुच का?
चरखी है कमजोर, ले रहा हिचकी 'हुचका'॥
--------------------------------------
प्यासा पड़ा गिलास
जल-संकट ने कर दिया,
जनता को बेहाल।
सरकारी नल के निकट, हर दिन होय बबाल॥
हर दिन होय बबाल, लड़े रानी-महारानी।
'दमयंती' क्या करे, न हो जब 'नल' में पानी॥
'छोटे गुरू' किया है पस्त, इसी झंझट ने।
जनता को बेहाल कर दिया जल-संकट ने॥
घडा, कसैंडी, बाल्टी, सब ही भए उदास।
लोटा 'लोटा' फिरत है, प्यासा पडा गिलास॥
प्यासा पडा गिलास, प्यास संत्रास दे रही।
आने वाले संकट का आभास दे रही॥
'छोटे गुरू' प्रचंड समस्या है ये टेढी।
सब ही भए उदास, बाल्टी-घडा-कसैंडी॥
-----------------------------------------
ग्रीष्म का जेठ महीना
जेठ महीना ग्रीष्म का,
भीष्म ताप विकराल।
उमस पसीने से हुआ, हर कोई बेहाल॥
हर कोई बेहाल, देह भी दहक रही है।
हवा बनी लू, अग्निशिखा-सी लहक रही है॥
'छोटे गुरू' चैन ऐसी गरमी ने छीना।
ग्रीष्म ताप विकराल,
ग्रीष्म का जेठ महीना॥
तन में भईं घमौरियाँ,
जैसे उगे बबूल।
लोग ठिकाना ढँूढ़ते, ठण्डा-ठण्डा कूल॥
ठण्डा-ठण्डा कूल, कहीं से मिले तरावट।
बढ ती जाती है घमौरियों से घबराहट॥
'छोटे गुरू' लगी है जैसे आग बदन में।
उगे बबूल भईं ऐसी घमौरियाँ तन में॥
-------------------------------------
चाय की चुस्की
चुस्की लेकर चाय की,
लिखें निराले छंद।
उठतीं भाव-समुद्र में,
लहरें बड़ी बुलंद॥
लहरें बडी बुलंद, लेखनी दौडे सरपट।
कविता कैसी भी हो, बन जाती हैं झटपट॥
'छोटे गुरू' मिटाती यह, साहित्यिक खुश्की।
लिखें निराले छंद, चाय की लेकर चुस्की॥
मुखफिस हो या कोई, ऊँचा ओहदेदार।
चाय पिलाकर कीजिए, स्वागत और सत्कार॥
स्वागत और सत्कार, वैलकम या आगवानी।
चाय बन गयी 'सोशलिज्म' की अमिट निशानी॥
'छोटे गुरू' चाय से सजती है हर मजलिस।
ऊँचा ओहदा कोई हो, चाहे मुफलिस॥
--------------------------------------------
चमचागीरी
चमचागीरी से बड़ा हुनर न कोई और।
इसीलिए बनकर रहो, चमचों के सिरमौर॥
चमचों के सिरमौ, गौर से देखो-भालो।
भरी हुई बटलोई में सिर अपना डालो॥
'छोटे गुरू' मिलेगा क्या ठलुआगीरी से?
हुनर न कोई बडा और, चमचागीरी से॥
होना है यदि आपको, अस-सरदार सरदार।
अपने संग सजाइये, चमचों का दरबार॥
चमचों का दरबार, दाल चमचों से गलती।
चमचे बिना मलाई नहीं किसी को मिलती॥
'छोटे गुरू' पराये चमचों को धोना है।
असरदार सरदार आपको यदि होना है॥
----------------------------------------
गुलामी के बीज
ईस्ट इंडिया कंपनी, आयी थी तब एक।
लूट रहीं हैं देश को,
अब कम्पनी अनेक॥
अब कम्पनी अनेक, 'वैश्वीकरण' हुआ है।
राष्ट्र-अस्मिता का,
ये कैसा क्षरण हुआ है?
'छोटे गुरू' गुलामी का फिर जाल बुन दिया।
आयी थी तब एक कंपनी ईस्ट इंडिया॥
बंद हो रही फैक्ट्रियाँ,
बिखर गया व्यापार।
खेती-बाड़ी पर हुआ, गैरों का अधिकार॥
गैरों का अधिकार, कृषक सिर धुन पछताता।
'बडी कंपनी' बनीं देश की भाग्य-विधाता॥
'छोटे गुरू' गुलामी के ये बीज बो रहीं।
बिखर गया व्यापार, फैक्ट्रियाँ बंद हो रहीं॥
-------------------------------------------
महँगाई की टाँग
मस्ती में भी अड़ गयी,
महंगाई की टांग।
दगने दाम चुकाय कें,
कैसे छाने भांग?
कैसे छाने भांग, करे कैसे कविताई।
कैसे लिखे कुण्डली, दोहा या चौपाई॥
सम्पादक जी! लिखे कहा,
हालत खस्ती में?
महंगाई की टांग अड
गयी है। मस्ती में?
सूनी-सूनी सिल पडी, लोढा लकुआ-ग्रस्थ।
बिना भांग के है गयी,
काव्य-कला हू पस्त॥
काव्य-कला हू पस्त, त्रस्त सरसुती बिचारी।
छन्द पड गये मन्द, शब्द
भरते सिसकारी॥
'छोटे गुरू' भांग की कीमत है गई दूनी।
लोढा लकुवा-ग्रस्त, सिल पडी सूनी-सूनी॥
----------------------------------------------
No comments:
Post a Comment