दीए जलायें, दिल नहीं


दीए जलायेंदिल नहीं

दीपावली प्रकाश और समृद्धि बाँटने का त्यौहार है। अन्धकार और विपन्नता के खिलाफ सतत् संग्राम का प्रतीक है यह अनुष्ठान-पर्व। लेकिन कलि की कालिमा और वैचारिक दरिद्रता का घटाटोप हमारे इस अनुष्ठान-पर्व की समग्र प्रकाश-किरणों तथा सद्भाव-समृद्धि को निगलते ही जा रही हैं। माँटी का दीया यह मानव-शरीर अब स्नेह के तेल से रीता-रीता-सा रहने लगा हैतब इसमें प्रेम की बाती का प्रकाश वैâसे प्रस्पुâटित हो?
                श्यामा लक्ष्मी का बसेरा बने हुए महलों-अट्टालिकाओं की छाया में पल रही वैचारिक और चारित्रिक दरिद्रता आज के दीपावली-सेलीब्रेशन का रोल-मॉडल बन गयी है। जिस-त्यौहार का मूल-सन्देश आशा का प्रकाश और सद्भाव का माधुर्य बाँटना ही रहा होउस त्यौहार पर वैभव का वीभत्स प्रदर्शन एवं स्वार्थ-साधना हेतु उपहार-मिष्ठानादि का विनिमय-वितरण ही अब प्रमुख रिवा़ज बन कर रह गया है। उपभोक्तावादी मानसिकता ने इस त्यौहार को बाजार’ बनाकर रख दिया है। उपहारों-मिष्ठान्नों की खरीदारी और वितरण आर्थिक-स्वार्थ-सम्बन्धों की प्रगाढ़ता को बनाये रखने के लिए किये जाने लगे हैं। अपने पास-पड़ौस या परिकर में विपन्नता या आपदाओं के अँधकार में घिरे स्वजनों की ओर अब किसी का ध्यान ही नहीं जाता।
                दीपावली के दीये जलाने के लिएअपने घर-आवास को जगमग रोशनी से जगमगाने के लिएअपने वैभव का वीभत्स प्रदर्शन करने के लिए जिस धन की बेइंतहा बरबादी की जाती हैवह धन कितने लोगों का दिल जलाकर हासिल किया गया है— यह सोचने का नैतिक पाप’ कोई नहीं करना चाहता। आज का नव धनाढ्य-वर्ग भोगवादी-परंपरा का पोषक बनता रहा है। पूर्वकाल के उदारमना महाजनों’ की भाँति अर्जित सम्पत्ति का लोक-कल्याण हेतु उपयोग करना आज के धनिकों का संस्कार नहीं रह गया है।
                न जाने कितने दिलों को जलाकर दीवाली के दीये जलाने का शौक पूरा कर रहे हैं आधुनिक लक्ष्मी-पुत्र। धन को बाँटने’ और मन को डाँटने’ की सनातन शिक्षा अब भारत के सांस्कृतिक पटल से अन्तर्धान हो चुकी है।
                इसका एक मात्र कारण यह है कि आधुनिक कुबेरों ने धन’ को ही लक्ष्मी’ मान लिया है और वे उसे अपने ही महलों में स्थायी निवास देना चाहते हैं। जबकि हमारे मनीषीगण हमें बार-बार आगाह करते रहे हैं कि— पानी बाढ़ै नाव मेंघर में बाढ़ै दाम। दोऊ हाथ उलीचिएयही सयानो काम।। धन के संग्रह से मनुष्य धनवान तो हो सकता हैकिन्तु लक्ष्मी अपनी श्री-समृद्धिसदाशयता और ऋद्धि-सिद्धि के साथ वहाँ विराजमान रहें— यह आवश्यक नहीं। लक्ष्मी मइया जिस तरह के आचरण वाले लोगों पर कृपा करती हैंउसका वर्णन हमारे शास्त्रों में कई स्थान पर है। धन तो एक साधन हैजिससे लोक-कल्याण और लोकोपकारी अनुष्ठानों को सम्पन्न करते हुए लक्ष्मी की स्थायी अनुकम्पा हासिल की जा सकती है। किसी को सुख पहुँचाकर आत्मानंद की जो अनुभूति हो सकती हैवह हजारों दीयों की रोशनी से भी कई गुना ज्यादा ईश्वरीय प्रकाश हमारे अन्दर भर सकती है। कहा है
                तुम्हारे दीपक ने मन के अन्दरअगर उजाला किया नहीं है।
                दिया नहीं है किसी को सुखतो दिया वो कोई दिया नहीं है।

---------------------------------------------------------------------------------------------

अंधकार ज्योति ने.......

राधिका ने कृष्ण को पुकार लिया है।
अंधकार ज्योति ने उबार लिया है।।
आँख खुली है अभी प्रकाश-सीप की।
छेड़ दे हवा न दूर या समीप की।।
ज्योति कही काँप नहीं जाये दीप की।
आँचलों की ओट में संवार लिया है।।
राधिका ने कृष्ण को पुकार लिया है।
अंधकार ज्योति ने उबार लिया है।।
डगमगा न जाये पाँव धूप-छाँव में।
पथ न भूल जायें हम पराये गाँव में।।
हार-जीत हो न जाये एक दाँव में।
बाजियों ने चाल को सुधार लिया हैै।।
राधिका ने कृष्ण को पुकार लिया है।
अंधकार ज्योति ने उबार लिया है।।
ज्योति पुंज ले असंख्य दीप जल गये।
तमतमाहटों के बीच तम निगल गये।।
बीज अंकुरों के रूप में सुफल गये।
रात ने प्रभात को दुलार लिया है।।
राधिका ने कृष्ण को पुकार लिया है।
अंधकार ज्योति ने उबार लिया है।।

No comments:

Post a Comment